नैतिक विश्वास की तलाश में स्त्री-भाषा, खुले हैं सभी दरवाजे

Posted By Geetashree On 5:54 AM

23 सितंबर से 29 सितंबर के बीच आयोजित सेमिनार--हिंदी की आधुनिकता:पुर्नविचार पर विमर्श के लिए देशभर से अनेको विद्वान शिमला में जुटे हुए हैं।
मशहूर ब्लागर, मीडिया विशेषज्ञ विनीत कुमार भी शिमला की गुलाबी ठंड में डटे हुए हैं और लगातार रिपोर्टिंग कर रहे हैं।
सेमिनार के दूसरे दिन की उनकी यह रिपोर्ट स्त्री-विमर्श के कुछ नए पहलुओं को बड़ी ढिठाई के साथ छू रही है। पूर्वाग्रहो से मुक्त होकर आनंद उठाइए और विचार करिए...आनामिका और सविता सिंह के वक्तव्यों के बहाने एक चोट और सही....गीताश्री


मशहूर कवयित्री औऱ लेखिका अनामिका का ये कथन कि इंटरनेट ने स्त्रियों के बीच के संदर्भकीलित चुप्पियां दूर करने का काम किया है। स्त्री-भाषा जो कि अपने मूल रुप में ही संवादधर्मी भाषा है,जो बोलती-बतियाती हुई विकसित हुई है,एक-दूसरे के घर आती-जाती हुई,बहनापे के तौर पर विकसित हुई है,इंटरनेट पर स्त्रियों द्वारा लेखन,स्त्री सवालों पर की जा रही रचनाएं उसकी इस भाषा-संभावना को और विस्तार देती है,स्त्री-मुक्ति और संवादधर्मिता के स्पेस के विस्तार में इंटरनेट की भूमिका को नये सिरे से परिभाषित करती है। हिन्दी के हिटलर,भाषिक बमबारियाःस्त्री का भाषा-घर विषय पर अपना पर्चा पढ़ते हुए अनामिका ने स्त्री-भाषा को पुरुषों की वर्चस्वकारी भाषा से अलगाने के क्रम में चोखेरबाली जैसे ब्लॉग, फेसबुक, एफ.एम.रेडियो ममा म्याउं 104.8 और इमेल को साहित्य के पार नयी भाषिक कनातों के तन जाने के रुप में विश्लेषित किया। अनामिका का मानना है कि किसी भी मनोवैज्ञानिक युद्ध में भाषा हथियार का काम करती है। जिसको भी हाशिये पर धकेल दिया जाता है,पता नहीं किस क्षतिपूर्ति सिद्धांत के तहत उसकी भाषा ओजपूर्ण हो जाती है,जिसका मुकाबला शास्त्रीय भाषा नहीं कर सकती। स्त्री-भाषा अपना विकास इसी रुप में कर पाती है। लेकिन स्त्री-भाषा, पुरुषों की भाषा की तरह हिंसक भाषा बनने के बजाय प्रतिपक्ष के बीच नैतिक विश्वास की तलाश करती है। इसलिए वो हमेशा झकझोरने वाली भाषा के तौर पर काम करती है,हमले करने और धराशायी करने के रुप में नहीं। हिन्दी में स्त्री-भाषा के इस रुप की तलाश के क्रम में अनामिका उन चार संदर्भों को रेखांकित करती है जहां से कि लेखन के स्तर पर स्त्री-भाषा के रुप विकसित होते हैं-1.विद्याविनोदी परीक्षा की शुरुआत।यहां से चिठ्ठी-पतरी के लिखने के क्रम में स्त्रियों की भाषा बनती-बदलती है। 2.महादेवी वर्मा के चांद का संपादकीय 3.बिहार में जेपी आंदोलन के दौरान जेएनयू,डीयू,पटना यूनिवर्सिटी जैसे अभ्यारण्यों में स्त्रियों के आने के बाद भाषा का एक नया रुप दिखायी देता है। इसी समय यहां पढ़नेवाली लड़कियां मजाक में ही सही,पुरुषों के प्रेम-पत्र पर अश्लील शब्दों पर गोले लगाती हैं और नॉट क्वालिफॉयड का लेबल लगाती है। दरअसल एक तरह से वो पुरुष-भाषा के औचित्य-अनौचित्य पर सवालिया निशान पैदा करने का काम शुरु कर देती है। इस तरह के शिक्षण संस्थानों और उसके आस-पास के लॉज और हॉस्टलों में रहकर एक स्त्री जो भाषा पाती है,प्रयोग करती है और उसका विस्तार करती है उसकी अभिव्यक्ति हमें पचपन खंभें लाल दीवारें और मित्रो मरजानी जैसी हिन्दी रचनाओं की याद दिलाते हैं। अनामिका का मानना है कि इन सबके वाबजूद यहां तक आते-आते स्त्री भाषायी स्तर पर अकेली पड़ जाती है इसलिए स्त्री-भाषा के चौथे संदर्भ या पड़ाव के तौर पर इंटरनेट और ब्लॉग पर बननेवाली स्त्री-भाषा का जिक्र करती है। अनामिका पूरे पर्चे में गांव से लेकर हॉस्टल/लॉज के दबड़ेनुमा कमरे में बनने और बरती जानेवाली उस भाषा को प्रमुखता से पकड़ती हैं जो कि संवादधर्मिता की प्रवृत्ति को मजबूत करते हैं। इसलिए शब्दों,शैलियों और कहने के अंदाज के स्तर पर एक-दूसरे से अलग होने के वाबजूद वो एक-दूसरे के विकासक्रम का ही हिस्सा मानती है। इसी क्रम में भूमंडलीकरण के बाद के बलात् विस्थापन में फुटपाथओं पर चूल्हा-चौका जोड़नेवाली मजदूरनी आपस में जिस भाषा में बतियाती है या बच्चों को,जिस खिचड़ी भाषा में नयी उठान की लोककथाएं सुनाती है या लोकगीत,उसकी भी छव बिल्कुल निराली है।इस प्रस्तुति के दौरान अनामिका की दो प्रमुख स्थापनाएं रहीं जिसे कि स्त्री-भाषा के दो प्रमुख अवदान के तौर पर विश्लेषित करती हैं- 1. जिस तरह अच्छी कविता इंद्रियों का पदानुक्रम नहीं मानती-दिल-दिमाग और देह को एक ही धरातल पर अवस्थित करती हुई तीनों को एक-दूसरे के घर आना-जाना कायम रखती है,स्त्री-भाषा पर्सनल-पॉलिटिकल,कॉस्मिक-कॉमनप्लेस,सेक्रेड-प्रोफेन,रैशनल-सुप्रारैशनल के बीच के पदानुक्रम तोड़ती हुई उद्देश्य स्थान-विधेय स्थान के बीच म्यूजिकल चेयर सा खेल आयोजित करती है जिससे कि बहिरौ सुनै मूक पुनि बोलै/अन्धरो को सबकुछ दरसाई का सही प्रजातांत्रिक महोत्सव घटित होता है।2. स्त्री-भाषा ने आधुनिकता का कठमुल्लापन झाड़कर उसके तीन प्रेमियों का दायरा बड़ा कर दिया है-शुष्क तार्किकता का स्थानापन्न वहां सरस परा-तार्किता है,परातार्किकता जो बुद्धि को भाव से समृद्ध करती है। प्रस्तरकीलित धर्मनिरपेक्षता का स्थानापन्न वहां है इगैलिटेरियन किस्म का अध्यात्म,अध्यात्म,अध्यात्म जो कि मानव-मूल्यों को स्पेक्ट्रम ही है-और क्या? आधुनिकता के तीसरे प्रमेय,सतर्क वैयक्तियन का स्थानापन्न स्त्री-भाषा में है। सर्वसमावेशी हंसमुख दोस्त-दृष्टि जो यह अच्छी तरह समझती है कि मनुष्य की बनावट ही ऐसी है कि वह लगातार न सर्वजनीनता को समर्पित रह सकता है,न निरभ्र एकांत को। उसे पढ़ने-लिखने,सोचने-सोने और प्यार करने का एकांत चाहिए तो चिंतन और प्रेम के सारे निष्कर्ष साझा करने का सार्वजनिक स्पेस भी? एक सांस भीतर गयी नहीं कि उल्टे पांव वापस लौट आती है। लेकिन बाहर भी उससे बहुत देर ठहरा नहीं जाता,सारे अनुभव,बिम्ब,अनुभूतियां और संवाद समेटकर फिर से चली जाती है भीतर-गुनने,समझने,मनन करने। स्त्री-भाषा ये समझती है- इसलिए उसके यहां कोई मनाही नहीं। सब तरह के उच्छल भावों की खातिर उसके दरवाजे खुले हुए हैं। वह किसी से कुछ भी बतिया सकती है-संवादधर्मी है स्त्री-भाषा। पुरुषों की मुच्छड़ भाषाधर्मिता उसमें नहीं के बराबर है।अनामिका के पर्चे के उपर कई तरह के सवाल उठाए गए। स्त्री-विमर्श से जुड़े संदर्भ को लेकर,पीछे लौटकर महादेवी वर्मा में इस विमर्श के संदर्भ खोजने को लेकर,जेपी आंदोलन और स्त्रियों के घर से बाहर आकर भाषा बरतने को लेकर लेकिन इन सबसे अलग जो सबसे अहम सवाल उठे वो ये कि क्या स्त्री-विमर्श की यही भाषा होगी जो अनामिका प्रयोग कर रही है? अभय कुमार दुबे स्त्री विमर्श की बिल्कुल नयी भाषा रचने के लिए अनामिका को बधाई देते हैं।स्त्री-भाषा और विमर्श को लेकर अनामिका ने जो स्थापनाएं दी सोशल फेमिनिस्ट और कवयित्री सविता सिंह उससे सहमत नहीं है। उन्हें स्त्री विमर्श के लिए बार-बार इतिहास औऱ परंपरा की ओर लौटना अनिवार्य नहीं लगता,वो इस नास्टॉल्जिक और रोमैंटिक हो जाने से ज्यादा कुछ नहीं मानती। घरेलू आधुनिकता का प्रश्न पर अपना पर्चा पढ़ते हुए सविता सिंह ने इसे पॉलिटिकल इकॉनमी के तहत विश्लेषित करने की घोषणा की और इसलिए पर्चे के शुरुआत में इसकी सैद्धांतिकी की विस्तार से चर्चा करते हुए घरेलू आधुनिकता के सवाल और अपने यहां इसके मौजूदा संदर्भों का विश्लेषण किया।सविता सिंह की मान्यता है कि ये सच है कि मार्क्स के यहां स्त्री के सवाल बहुत ही विकसित रुप में हैं लेकिन उनके यहां वर्ग इतना प्रमुख रहा है कि वो इसके विस्तार में नहीं जाते। सोशल फेमिनिस्ट की जिम्मेदारी यहीं पर आकर बढ़ती है। सविता सिंह इससे पहले भी दिल्ली में आयोजित एक संगोष्ठी में कात्यायनी की स्त्री-विमर्श की समझ पर असहमति जताते हुए घोषणा कर चुकी है कि स्त्री-विमर्श को समझने के लिए मार्क्सवाद के टूल्स पर्याप्त नहीं हैं। सविता सिंह बताती है कि मार्क्स के यहां घरेलू श्रम को बारीकी से समझने की कोशिश नहीं की गयी जबकि घरेलू श्रम,श्रम से बिल्कुल अलग चीज है। घरेलू श्रम को कभी भी प्रोडक्टिव लेवर के तौर पर विश्लेषित ही नहीं किया गया जबकि यह श्रम का वह स्वरुप है जो कि बाजार और फ्रैक्ट्री में उत्पादन करने के लिए मनुष्य को तैयार करती है। एक स्त्री दिनभर घर में काम करके,एक पुरुष को इस लायक बनाती है कि वो बाहर जाकर काम कर सके। लेकिन इस श्रम शक्ति का कोई मूल्य नहीं है, इसके साथ स्लेव लेबर का रवैया अपनाया जाता है। इस श्रम को बारीकी से समझने की जरुरत है. फ्रैक्टी जो कि लेबर पॉवर खरीदता है वो कैसे बनते हैं,इस पर विस्तार से चर्चा करनी जरुरी है।सविता सिंह जब घरेलू श्रम की बात करती है तो उसे बाजार में बेचे जानेवाले श्रम से बिल्कुल अलग करती है। ये सचमुच ही बहुत पेंचीदा मामला है कि घरेलू स्तर पर स्त्री जो श्रम करती है उसके मूल्य का निर्धारण किस तरह से हो? एक तरीका तो ये बनता है कि वो जितने घंटे काम करती है उसे मॉनिटरी वैल्यू में बदलकर देखा जाए। लेकिन क्या सिर्फ ऐसा किए जाने से काम बन जाएगा। इस तरह का मूल्य निर्धारण किसी भी रुप में न्यायसंगत नहीं है। सविता सिंह का मानना है कि उपरी तौर पर पूंजीवादी समाज में यह भले ही लगने लगे कि घरेलू श्रम का बाजार के स्तर पर निर्धारण शुरु हो गया है लेकिन व्यावहारिक तौर पर यह पहले के मुकाबले औऱ अधिक नृशंस होता चला जा रहा है। मशीन आने पर भी घरेलू स्तर पर स्त्री-श्रम कम नहीं होता। बहुत ही मोटे उदाहरण के तौर पर हम देखें तो हमें चार दिन के बदले दो दिन में धुले बेडशीट चाहिए,पहले से कहीं ज्यादा साफ। पढ़ी-लिखी स्त्री इसलिए भर चाहिए कि वो बच्चों को पाल सके,सास की दवाईयों के अंग्रेजी में नाम पढ़ सके। इससे ज्यादा एक स्वतंत्र छवि बनने की गुंजाईश बहुत एधिक दिखायी नहीं देती।परिवार में इस घरेलू श्रम के उपर,प्यार,सौहार्द्र और लगाव जैसे शब्दों को डालकर उसके भीतर की विसंगतियों को लगातार ढंकने का काम किया गया। एक बेटी को प्रेम तब बिल्कुल भी नहीं मिलेगा जबकि वो घर का काम करने से इन्कार कर देती है। इसकी पूरी संभवना बनती है कि उसे प्रताड़ित किए जाएं। घरेलू हिंसा का एक बहुत बड़ा कारण यह भी है। इस बात पर शीबा असलम फहमी ने अफगानिस्तान के उस उदाहरण को शामिल किया जहां अपने पति से साथ सेक्स नहीं करने पर स्त्री को रोटी नहीं दिए जाने की बात कही गयी।सविता सिंह के हिसाब से पूंजीवाद कभी भी इस हॉउसहोल्ड को खत्म नहीं करना चाहता। वो कभी नहीं चाहता कि इस घरेलूपन की संरचना टूटे। क्योंकि ऐसा होने से उसे भारी नुकसान होगा। फर्ज कीजिए कि विवाह संतान उत्पत्ति के बजाय प्लेजर,शेयरिंग और साइकोसैटिस्फैक्शन का मामला बनता है तो इससे पूंजीवादी समाज में उत्पादन औऱ उपभोग पर बहुत ही बुरा असर पड़ेगा। इसलिए पूंजीवाद स्त्री श्रम और घरेलूपन को नए रुप में लगातार बदलने का काम करता है। वो स्त्रियों को घर पर ही काम मुहैया कराता है जिससे कि वो घरेलू जिम्मेवारियों को भी बेहतर ढंग से निभा सके। फैक्ट्री श्रम-शक्ति खरीदता है,पूंजीवाद श्रम-समय खरीदता है लेकिन अब एक तीसरा रुप उभरकर सामने आ रहा है जो कि अनुशासित तरीके से समय भी नहीं खरीदता है बल्कि सीधे-सीधे आउटपुट पर बात करता है जो कि उपरी तौर पर सुविधाजनक दिखाई देते हुए भी ज्यादा खतरनाक स्थिति पैदा करता है। इसलिए स्त्री-मुक्ति के सवाल में यह सबसे ज्यादा जरुरी है कि हाउसहोल्ड का डिस्ट्रक्शन हो,उसका छिन्न-भिन्न होना जरुरी है।सविता सिंह के इस पर्चे पर आदित्य निगम की टिप्पणी रही कि उन्हें लग रहा है कि वो आज से तीस साल पहले के सेमिनार में बैठे हों क्योंकि सविता सिंह की पूरी बातचीत उसी दौर के स्त्री-विमर्श की बहसों के इर्द-गिर्द जाकर घूमती है,उसके बाद क्या हुआ इसे विस्तार से नहीं बताया। अभय कुमार दुबे का मानना रहा कि आधुनिक परिवार कहे जानेवाले परिवार में किस तरह की समस्याएं हैं,इस पर बात करनी चाहिए। उन परिवारों की चर्चा की जानी चाहिए जहां का पुरुष घोषित तौर पर स्त्री को खुली छूट देता है लेकिन वहां भी पाबंदी की महीन रेखाएं दिख जाती है,वो रेखाएं कौन सी है,इस पर बात होनी चाहिए।इन सबों के सवाल में सविता सिंह बार-बार दोहराती है कि ग्लोबल कैपिटलिज्म में स्त्री के श्रम का प्रॉपर कॉमोडिफेकेशन नहीं हुआ है। मार्केट तो चाहता है कि सबकुछ का कॉमोडिफिकेशन हो,संबंधों का हो।इस कॉमोडिफिकेशन के बाद स्त्री-विमर्श के संदर्भ किस तरह से बनेंगे इसे भी बारीकी से समझने की जरुरत है।
अविनाश वाचस्पति
September 27, 2009 at 9:51 AM

आपके अपने विचार हैं
अनामिका के अपने
सविता सिंह के अपने
सबके विचार अपने ही होते हैं
पर कब वो सामने वाले के बन जाते हैं
हम समझ नहीं पाते हैं
जब समझ लेते हैं
तो दूरियां सब मिट जाती हैं।