अपने आसन से वंचित देवता की चीखें

Posted By Geetashree On 2:04 AM

सभी दोस्तो के नाम....ये किसी एक को संबोधित नहीं है। ना ही मेरा व्यक्तिगत प्रलाप है। मेरे लेखों का मेरी निजी जिंदगी की झुंझलाहट से क्या लेना देना..मेरे बारे में बताने के लिए ब्लाग में दिया गया परिचय और मेरा पेशा ही काफी है। मैं जागरुक पत्रकार हूं, आजाद ख्याल स्त्री हूं..सजग हूं..नागरिक हूं..अपने आसपास हो रही घटनाओ पर पैनी निगाह रखती हूं...। मेरी राय कोई अंतिम सच नहीं,,असहमति जताई जा सकती है, मगर दायरे में रह कर। मुनवादी व्यवस्था की धज्जियां उड़ चुकी हैं। आधुनिक समाज का उनसे कोई लेना देना नहीं...मगर अभी भी जहां ये लागू है मैं उस पर चोट करती हूं तो कुछ लोगो की चीख निकल जाती हैं। क्यों, ये मनुबाबा जानें, जिन्हे लोग भगवान मानने का भ्रम पाले बैठे हैं।

जिसे लोग मनु भगवान कहते हैं और जिनकी मनु-स्मृति से कुछ उदाहरण उठाए गए हैं स्त्रियों का मुंह बंद कराने के लिए..मैं उसी में से कुछ नायाब मोती चुन चुन कर आज पेश करने जा रही हूं..उम्मीद है मनु बाबा के अनुयायी इससे इनकार नहीं करेंगे। आखिर मनु भगवान लिखित दस्तावेज जो सौंप गए है..तो सुनिए...
मनु ने स्त्रियों के संबंध में जो व्यवस्था दी है उसे आगे चलकर याज्ञवल्क्य, अत्रि, वशिष्ठ, विष्णु, कण्व, गौतम, प्रजापति, बोधायन, गोभिल, नारद, प्रचेता, जाबालि, शौनक, उपमन्यु, दक्ष, कश्यप, शांदिल्य, कात्यायन, पराशर आदि आदि सभी स्मृतिकारों ने समर्थन किया है। मनु के अनुसार स्त्रियों के कोई भी संस्कार वेदमंत्र द्वारा नहीं होते , क्योंकि इन्हें श्रुति-स्मृति का अधिकार नहीं है। ये निरेंद्रियां(ज्ञानेंद्रिय विहीन यानी अज्ञान), अमंत्रा,(पाप दूर करने वाले जप-मंत्रों से रहित) हैं। इनकी स्थिति ही अनृत अर्थात मिथ्या है। मलतब ये कि स्त्री की अपनी स्वतंत्र सत्ता या स्वतंत्र स्थिति है ही नहीं। (शलोक न.24)
अगला देखें...स्त्रियों के लिए पृथक कोई यज्ञ नहीं है न व्रत है, न उपवास। केवल पति की सेवा से ही उसे स्वर्ग मिलता है। जप, तपस्या, तीर्थ,-यात्रा, संन्यास-ग्रहण, मंत्र-साधन और देवताओं की आराधना इन छह कर्मो को करने से स्त्री और शूद्र पतित हो जाते हैं।
जिस स्त्री की तीर्थ में स्नान करने की इच्छा हो उसे अपने पति का चरणोदक पीना चाहिए। (25-26-27)
मनु के अनुसार स्त्री को स्वतंत्रता का अधिकार नहीं। उसे कौमार्यावस्था में पिता के, युवावस्था में पति के और वृदावस्था में पुत्र के अधीन रहना चाहिए।(28)
मनु के अनुसार स्त्री का पति दुशील,कामी, तथा सभी गुणों से रहित हो तो भी एक साध्वी स्त्री को उसकी सदा देवता के समान सेवा व पूजा करनी चाहिए। (5/154)
लेकिन एसी स्त्रियों के लिए मनु का सुझाव है---अपराध करने पर स्त्री को रस्सी या बांस के खप्पचे से पीटना चाहिए। (35)
पति के मर जाने पर स्त्री यदि चाहे तो केवल पुष्पो, फलो एवं मूलो को ही खाकर अपने शरीर को गला दे। किंतु उसे किसी अन्य व्यक्ति का नाम भी नहीं लेना चाहिए। मृत्युपर्यन्त उसे संयम रखना चाहिए, व्रत रखने चाहिए, सतीत्व की रक्षा करनी चाहिए और पतिव्रता के सदाचरण एवं गुणों की प्राप्ति की आकांक्षा करनी चाहिए। (5/157-160)

देखिए...मनु-समृति भरा पड़ा है..स्त्रीविरोधी श्लोको से...कितना उदाहरण दूं। मैं यहां मनु-समृति का पुनर्लेखन या पुर्नपाठ नहीं करना चाहती। जिसे पढ कर उबकाई आए, खून खौले और जिसकी प्रतियां जला देने का मन करें उसके बारे में लंबी चर्चा कैसे करुं। मुझे मजबूरन इतना अंश यहां डालना पड़ा क्योंकि प्रतिक्रिया में कई अनुकूल श्लोको का उदाहरण दिया गया है। मैं तो गड़े मुर्दे उखाड़ना नहीं चाहती थी। ना ही इतिहास के बोझ से दबी हुई स्त्री की हिमायती हूं। हमने सारे बोझ उतार फेंके हैं। मैंने अपने पोस्ट में जरा सी ज्रिक भर किया था कि लोग बाग तिलमिला उठे। मैंने छुआ भर...याद दिलाने के लिए। मनु-स्मृति स्त्री और दलितों के एसे कमजोर नस को छूता है कि चर्चा भर से आग भभक उठती है। आप जिसे भगवान कहते हैं, हम उसे घोर-स्त्री विरोधी मानते हैं, दलित विरोधी भी। यहां हमारी लड़ाई एकसी हो जाती है। हमारी नजर में ये कथित हिंदुवादियों का वो भगवान है जो अपने आसन से चूक गया। अब उसके लिखे की कौन परवाह करे। मनु-व्यवस्था को ठेंगा दिखाती हुई स्त्रियां हजम नहीं हो रही हैं इन्हे। क्या करें..।

अब बात कर लें उन श्लोको की जिनके सहारे हिंदू समाज अपनी पीठ थपथपाता है। जिनका हवाला प्रवीण जी ने दिया है और बाकी पुरुष साथियों का वाहवाही लूटी है। ताली बजाने से पहले बेहतर होता कि अपने भगवान की कृति पढ लेते। जिस पर हिंदू समाज ताली बजाता है उसकासच क्या है जानना चाहेंगे। बताती हूं...किसी पुरुष लेखक के लेखन के हवाले से..। डां अमरनाथ स्त्रीवादी लेखक है..उनका शोध ग्रंथ है--नारी का मुक्ति-संर्घष। उसमें वे मनु बाबा के सबसे ताली बजाऊ और चर्चित श्लोक, जिसमें मनु ने लिखा है, जहां नारियो की पूजा होती है वहां देवता निवास....। इसकी कलई खोलते हुए अमरनाथ लिखते हैं...यह एकमात्र श्लोक है जिसे मनु ने ना जाने किस मनस्थिति में लिखा था और जिसके बल पर धर्मभीरु हिंदूसमाज अपने अतीत पर गर्व करता है। इसकी पृष्ठभूमि पर विचार करना जरुरी है। मनु ने (9/5-9, 9/10-12) स्त्री रक्षा की कई बार चर्चा की है और कहा है कि स्त्री को वश में रखना शक्ति से संभव नहीं है, उसे बंदी बना कर वश में रखना कठिन है, इसलिए पत्नी को निम्नलिखित कार्यो में संलग्न कर देना चाहिए, यथा-आय-व्यय का ब्यौरा रखे, कुर्सी-मेज(उपस्कर) को ठीक करना, घर को सुंदर और पवित्र रखना, भोजन बनाना आदि। उसे(पत्नी) को सदैव पतिव्रत धर्म के विषय में ही बताना चाहिए। इन उपक्रमों से स्त्री का ध्यान इन घरेलु कार्यों में लगा रहेगा और बाहरी दुनिया से वह कटी रहेगी। रस्सी या बांस के खपच्ची से मारना वश में करने का अंतिम उपाय है। अमरनाथ लिखते है----मनु का एकमात्र लक्ष्य स्त्री को पूरी तरह अंकुश में रखना है। इसके लिए साम-दाम-दंड-भेद, हर तरीके के इस्तेमाल का वे सुझाव देते हैं। परंतु प्रेम से, फुसलाकर और सम्मान देकर स्त्री को वश में रखा जा सके तो सर्वोतम है।
क्या हम अपनी दुधारु गाय को प्यार से नहीं सहलाते, क्या आज का मध्यवर्गी.समाज अपने कुत्ते को प्यार से स्नान नहीं कराता, खाना नहीं देता...गोद में नहीं उठाता, घुड़सवार अपने घोड़े पर, किसान अपने बैल पर, धोबी अपने गधे पर चाबुक जरुर चलाता है पर उसकी पीठ भी सहलाता है। जरुरत पड़ने पर उसे प्यार भी देता है। मनु द्वारा स्त्री को दिया गया सम्मान ठीक इसी तरह किसान द्वारा अपनी दूधारु गाय को दिए जानेवाले सम्मान की समान है।
उम्मीद है बहुत हद तक मुन की चाल समझ में आई होगी। कार्ल मार्क्स ने शायद इसीलिए धर्म को अफीम कहा है। हमारे धर्माचार्यों ने स्त्रियों के मामले में हमारे समाज को धर्म का एसा नशा खिलाया कि उसका नशा आज तक नहीं उतरा है।
Pratibha Katiyar
September 24, 2009 at 2:58 AM

गीता जी, आपने भी दुखती रग पर हाथ रख दिया. बेचारे लोग तिलमिला उठे हैं. तर्क कैसे-कैसे...आरोप कैसे-कैसे. हंसूं कि रोऊं समझ में नहीं आ रहा. मुझे तो लगा था कि अब समय इन बहसों से आगे का है. लेकिन नहीं अभी तक वहीं के वहीं, वैसे के वैसे खड़े हैं मूर्धन्य लोग.

हेमन्त कुमार
September 24, 2009 at 3:10 AM

नारी वाद का बिगुल है आपका यह लेख । सबका ध्यान आकृष्ट कराना नितान्त आवश्यक है । आभार ।

सुशीला पुरी
September 24, 2009 at 3:28 AM

हार्दिक बधाई .........गीताश्री जी ! मनु स्मृति के इतने सारे उदहारण देकर आपने कई लोगों का रक्तचाप बढा दिया है, मनु बाबा और धर्म के हवाले से कब तक हम ठगे जायेंगे ? मनु स्मृति को सचमुच जला देना चाहिए , न जाने किस पागलपन में रचा गया था ये ग्रन्थ . कार्ल मार्श का कथन बिलकुल सच है .....धर्म स्त्री को ठगने के लिए बनाया गया था और आज भी वह ठग ही रहा है हमे.

प्रज्ञा पांडेय
September 24, 2009 at 4:48 AM

गीताश्री जी आप तो इन्हें लगता है चैन से सोने ही नहीं देंगी ...ये क्या आपने शुरू कर दिया अब ये मनु समर्थक क्या करेंगे कहीं इनके घरों की औरतें जो बिना बोले सब कुछ करती रहतीं वे कहीं बिगड़ न जाए ,, ज़रा सोचिये तो..
बड़ी ख़ुशी है की एक मंच है जहाँ इस तरह से बेलाग बोला जाये!

डॉ .अनुराग
September 24, 2009 at 7:31 AM

गीता जी मनुवाद की खूब चिन्दिया बुद्धिजीवियों ने उडा रखी है .. ..धर्म का उपयोग मनुष्य अपने स्वार्थ के मन मुताबिक करता आया है ...कभी किस काल में लिखा गयी कोई किताब मनुष्य को उसके सामाजिक व्यवहार तय नहीं करती ....

प्रवीण शुक्ल (प्रार्थी)
September 25, 2009 at 5:19 AM

गीता जी आप ने मनु स्मरति से इतने उदाहरण देकर अपनी बात की सत्यता को पर्दर्शित करने का पूर्ण प्रयाश किया है,,, और ये प्रयाश प्रसंशनीय है , और मै ये ही चाहता था की आप मनु स्मरति का अध्यन करे और विरोधी तत्वों को सामने रखे फिर मै उनकी तुलना करके अपनी बात को और अधिक पुख्ता कर सकू ,,, सबसे पहले गीता जी हम बात करते है आधुनिक समाज में प्रचलित मनु स्मरति की प्रमाणिकता की ,,, क्या जो मनु स्मरति हम पढ़ते और देखते है वह प्रमाणिक है ,, और अगर है तो कितने प्रतिशत ,, क्या ये वही मनु स्मरति है जो भगवान् मनु ने लिखी थी और पूर्ण शुद्ध रूप में हमारे सामने है ,,,, अगर येसा है तो इसके श्लोको में इतना विरोधा भाष कैसे ,,, लिखने बाला एक चतुर्थ श्रेनी का लेखक भी जब अपने विषय के प्रतिकूल नहीं होता तो भगवान् मनु ने अपनी एक ही पुस्तक में इतना विरोध भाष कैसे लिख दिया ,,, एक जगह वो स्त्रियों की पूजा की बात करते है और दूसरी जगह उनकी दासता की ,, कही न कही कोई न कोई घेल मेल तो है,,,, अब वो घेल मेल क्या है उसे देखने के लिए हमें कुछ विद्वानों की ओर ताकना होगा और उनके कई शोध ग्रंथो को खगालना होगा ,,, यहाँ पर ये बहुत महत्व पूर्ण तथ्य है की हमारे जयादातर गर्न्थो का पुनर्मुद्रण और पुनर्संस्करण अग्रेजीशासन में हुआ और जयादातर अंग्रेज विद्वानों के द्बारा ही हुआ ,,, जिनका एक मात्र उद्देश्य भारत को गुलाम बनाना और भारतीय सभ्यता और संस्क्रती को नस्ट करना था,, कहीं कहीं पर उनका आल्प ज्ञान भी अर्थ को अनर्थ करने के लिए काफी था यथा
यत्पुरुषं व्यदधु: कतिधा व्यकल्पयन्।
मुखं किमस्य कौ बाहू का ऊरू पादा उच्येते॥ (ऋग्वेद क्0.90.क्क्)
अर्थात बलि देने के लिए पुरुष को कितने भागो मे विभाजित किया गया? उनके मुख को क्या कहा गया, उनके बांह को क्या और इसी तरह उनकी जंघा और पैर को क्या कहा गया? इस श्लोक का अनुवाद राल्फ टी. एच. ग्रिफिथ ने भी कमो-बेश यही किया है।
रह्मणोऽस्य मुखमासीद् बाहू राजन्य कृ त:।
ऊरू तदस्य यद्वैश्य: पद्भयां शूद्रो अजायत॥ (ऋग्वेद क्0.90.क्ख्)
इस श्लोक का अनुवाद एचएच विल्सन ने पुरुष का मुख ब्राह्मण बना , बाहु क्षत्रिय एवं जंघा वैश्य बना एवं चरण से शूद्रो की उत्पत्ती हुई किया है। ठीक इसी श्लोक का अनुवाद ग्रिफिथ ने कुछ अलग तरह से ऐसे किया है- पुरुष के मुख मे ब्राह्मण, बाहू मे क्षत्रिय, जंघा मे वैश्य और पैर मे शूद्र का निवास है। इसी बात को आसानी से प्राप्त होने वाली दक्षिणा की मोटी रकम को अनुवांशिक बनाने के लिए कुछ स्वार्थी ब्राह्मणो द्वारा तोड़-मरोड़ कर मनुस्मृति मे लिखा गया कि चूंकि ब्राह्मणो की उत्पत्ती ब्रह्मा के मुख से हुई है, इसलिए वह सर्वश्रेष्ठ है तथा शूद्रो की उत्पत्ती ब्रह्मा के पैर से हुई है इसलिए वह सबसे निकृष्ट और अपवित्र है। मनुस्मृति के 5/132 वे श्लोक मे कहा गया है कि शरीर मे नाभि के ऊपर का हिस्सा पवित्र है जबकि नाभि से नीचे का हिस्सा अपवित्र है। जबकि ऋग्वेद मे इस तरह का कोई विभाजन नही है। इतना ही नही इस प्रश्न पर इतिहासकारो के भी अलग-अलग विचार है। संभवत: मनुस्मृति मे पुरुष के शरीर के इस तरह विभाजन करने के पीछे समाज के एक वर्ग को दबाने, बांटने की साजिश रही होगी। मनुस्मृति के श्लोक सं1.31 के अनुसार ब्रह्मा ने लोगो के कल्याण(लोकवृद्धि)के लिए ब्राह्मण, क्षत्रिय,वैश्य और शूद्र का क्रमश: मुख, बाहू, जंघा और पैर से निर्माण किया। जबकि ऋग्वेद के पुरुष सूक्त के रचयिता नारायण ऋषि के आदेश इसके ठीक उलट है। उन्होने सरल तरीके से (10.90.11-12)यह बताया है कि यदि किसी व्यक्ति के शरीर से मुख, बाहू, जंघा और पैर अलग कर दिया जाए तो वह ब्रह्मा ही क्यो न हो मर जाएगा। अब जब येसा है तो मनु स्मरति के किन श्लोको को प्रमाणिक कहा जाए और किन्हें नहीं इसको ले कर बहुत लम्बी बहस हो सकती है,, परन्तु इसका उत्तर भी मनु स्मरति में ही छिपा है ,,,
pravkr25

Rangnath Singh
September 25, 2009 at 8:00 AM

badhiya hai...

Geetashree
September 25, 2009 at 10:12 AM

प्रवीण जी, जिस मुनस्म़ति को आप सही ठहरा दो उसी को खंगाल देंगे। आप जिसे पढे वो सही है हम ने जिसे पढा है वो फर्जी...वाह। आपकी जानकारी के लिए मनुस्मृति आपके लेख के बाद नहीं पढा...वो तो होश संभालने के साथ ही पढा था। ना पढती तो दिव्य ज्ञान कहां से प्राप्त होता..। कैसे जानती कि औरतों को साथ दोयम दर्जे के नागरिक जैसा व्यवहार क्यों होता है। जड़ तलाशना जरुरी होता है.. और कारणों की खोज हमें मुनबाबा का महान ग्रंथ पढने पर विवश करती है।
वेदो के हवाले से आप जो भी कहे, मैं कोई अनभिज्ञ नहीं हूं। अगर बात इसी पर आए तो मैं एक के बाद एक उदाहरण निकालना शुरु कर दूंगी...चाहे ब्राह्मणो का मामला हो या शुद्रो का या स्त्रियों का..। दुनिया इन वेदो से बहुत आगे निकल चुकी है। हमारा देश चांद पर खुदाई की तैयारी कर रहा है..और हम कहां उलझे हैं। इतिहास को मैं सिर्फ संदर्भ के तौर पर इस्तेमाल करती हूं...गले में माला बना कर पहनने का शौक नहीं ना ही ढोल की तरह बजाने का। अब इस मुद्दे पर आप माफ करे..।
और हां..जहां तक विरोधाभासी श्लोको का सवाल है..तो ये तो मुनवादी लोग ही कर सकते हैं। मैं एसी व्यवस्था को हैंग कर देने की पक्षधर हूं। इस पर बात करना गंवारा नहीं।
आपकी बातों से मैं कतई आहत नहीं हूं..मन में तनिक भी मलाल न रखें। बहस जरुरी है। आगे भी जारी रहे..इसी कामना के साथ...
गीताश्री

Rangnath Singh
September 25, 2009 at 2:10 PM

pravin ji

aapne original manu smriti ka jo hawala diya hai wo kaha hai ?? yadi aap apni wali ko hi original mante hai to aur bat hai ??

aap ne ye bhi kaha hai ki kisi ek hi granth me paraspar virodhi bate nhi ho sakti !! kya aapko is par pura viswas hai ??

aap manu ko bar bar bhagvan manu kah rahe hai. kya aap batayenge ki humari dharmik manyata ke anusar manu manusya the ya bhagvan the ??

aapne anuvad ki jo bat ki hai wo tarkik hai. lekin us par vichar karne ke bad hi kuchh kaha ja sakta hai.

aapne angrejo ko bhi kosa hai. thik hai wo the is layak lekin aap ye bhi bataye ki jyadatar bhartiy prachin grantho ke punaruddhar ka shrey kisi jata hai ?? Indology ko field of study ke rup me kisne establish kiya....jo aaj humare kam aati hai. ap angrejo ki niyat ka sawal mat uthayiyega...samjh lijiye ki jaise angrejo ne congress banaya lekin wo humare kaam jyada aayi vaisi hi.....!!

Kajal Kumar's Cartoons काजल कुमार के कार्टून
September 26, 2009 at 9:01 AM

Such books were nothing but pieces of yellow journalism of those times. However, certain class of backward looking people finds it difficult to negate such trash and try to remain clanged on to such so-called historic 'masterpieces'...

Rangnath Singh
September 26, 2009 at 1:38 PM

प्रवीण स्पष्ट करें कि उनका इण्डालजी के फील्ड से क्या और कैसा संबंध है। यदि वो कुछ स्वयंभू किताबों को पढ़कर ही बात कर रहे हैं तो मुझे कुछ नहीं कहना। टाइम पास करने के लिए हर कोई कुछ न कुछ करता है। लेकिन यदि वो इस बहस को लेकर गंभीर हैं तो बात हो। कुछ छंदो को लेकर प्रवीण जी ने कहा कि वो मनु स्मृति के भाग नहीं है। वो बताए कि वो ऐसा किस आधार पर कह रहे हैं। मैं उन्हें भारतीय ब्राह्मण विद्वानों का रिफ्रंेस दूंगा जो उन श्लोंको का मनु स्मृति का भाग मानते हैं और उनका वही अर्थ बताते हैं जिसे प्रवीण गलत बता रहे हैं। प्रवीण तो मनु को भगवान बता रहे हैं। मैं उन्हें स्पष्ट कर दूं कि मनु एक मनुष्य थे। कुछ मान्यताओं के हिसाब से प्रलय पश्चात के प्रथम मनुष्य। जिस लेखक को इतनी बुनियादी बात नहीं पता उससे आगे क्या बात की जाए ???

भारत को जिन ग्रंथो पर आज नाज है उन्हें ऊपर करने और दुनिया के सामने प्रस्तुत करने में अंग्रेजों ने बहुत श्रम किया है। अंग्रेजो के कमीनेपन को गाली देते वक्त हमें यह नहंी भूलना चाहिए कि उनमें कुछ अच्छे लोग भी थे। प्रवीण को यह नहीं पता कि इण्डालजी को सर्वाधिक खाद-पानी जर्मन विद्वानों ने दिया। जाहिर है कि वो अंग्रेज नहीं थे। उसके बाद फ्रांस ने कई बड़े इण्डोलाजिस्ट पैदा किए। संस्कृत भाषा को विश्व की महान भाषाआंे मे सबसे उत्तम कहने वाला एक अंग्रेज था। भारत बौद्धिक विकलांगो का नहीं ज्ञानियों का भी देश है ऐसा घोषण करने भी एक विदेशी था। बुद्ध दक्षिण अफ्रीकी नहीं भारतीय हैं इसे साबित करने के लिए एक अंग्रेज ने ही बुद्ध के जन्म स्थान की खोज की। एक अंग्रेज ने हड़प्पा की खोज करके बताया कि भारत की सभ्यता पिछड़ी और मूरख सभ्यता नहीं बल्कि सबसे पुरानी सभ्यता में से एक है।

मैक्समूलर ने किसी भी भारतीय से ज्यादा भारत की सेवा की है। कामिल बुल्के बेल्जियम के थे उन्होंने जो अंग्रेजी-हिन्दी डिक्शनरी लिखी उससे बेहतर डिक्शनरी आज तक कोई भारतीय नहीं लिख सका। जिन विवेकानन्द को देश में दुत्कार और भूखमरी मिली उन्हें अमरीका ने सराहा। स्वामी जी ने कहा कि मैं अमरीका न होता तो आज वो नहीं होता जो मैं हूं। स्वामी जी अमरीका वालों की कोटि-कोटि सराहना की है। यही हाल योगानंद,रामतीर्थ,कृष्णमूर्ती जैसे कई भारतियों का है।


सभी पाठकों से कहना चाहता हूं। अपने अतीत के प्रति ऐसे अंधमोह ने ही भारत को ज्ञान के मामले में मीलों पीछे कर दिया है। दुनिया के किसी भी देश के अतीत से भारत का अतीत बेहतर या बराबर ठहरेगा। लेकिन वर्तमान !!

आप सब ही बताइए कि शंकराचार्य जैसे दार्शनिक की बात रामनुजाचार्य ने काट दी। रामनुजा की माधवाचार्य ने,माधवाचार्य की बल्लभाचार्य और .........अब आप ही लोग बताएं कि जब वंेदांत में ही छह प्रमुख मत हैं। जो एक दूसरे को गलत मानते हैं तो बाकी भारतीय वंेदांग में कितनी परस्पर असहमतियां होंगी !!

पाठकों भारत ने बौद्धिक असहमतियों को हमेशा स्वीकार किया है। विद्वान जानते हैं कि आने वाली पीढ़ीयां ज्ञान में सुधार करती जाती हैं। ऐसा तो मूर्ख कहते हैं कि हमने हजार साल पहले ही सब जान लिया था। अगर ऐसा है तो क्या दो हजार सालों से ज्ञान का शोधन करने में लगे लोग मूरख हैं ??

बुद्ध और महावीर जैसों ने वेदों को सीधे सीधे नकार दिया तो वो मूरख थे क्या ??? पिछले हजार सालों में भारतीय वांग्मय में सर्वाधिक महत्वपूर्ण ग्रंथ गीता रही है। शंकर से लेकर गांधी तक ने उसका भाष्य किया है। गीता तो वेद का भाग नहीं है। तो उसके कंेन्द्रिय महत्व के बारे में प्रवीण जैसों का क्या कहना है। वेद सम्मत नहीं होने के कारण गीता क्या किया जाए ??

अपनी बात को समटते हुए कहुंगा कि साथियों इस तरह के मसलों पर भावुकता न दिखाएं। ऋृगवेद के उस श्लोक की याद सभी पाठकों को दिलाना चाहंुगा जिसका अर्थ होता है कि,

अच्छाई दुनिया मे कहीं भी हो, मुझे प्राप्त हो।

mukti
September 27, 2009 at 11:25 AM

it is absolutely correct that all the religions of the world are anti women.

Anonymous
November 8, 2009 at 10:18 PM

मिथिलेश दुबे जी का "भगवान मनु स्त्री विरोधी थे, ये कहना कितना जायज" पढा। उसमें प्रतिक्रियाये पढने के दौरान ही ज्ञात हुआ कि यह तो हू ब हू आपके "अपने आसन से वंचित देवता की चीखें" लेख पर प्रवीण शुक्ल जी की टिप्पणी की नकल है। दुख हुआ कि किसी के विचारों पर अपनी मोहर लगाकर वाहवाही बटोरने का यह तरीका अच्छा नहीं है।

veer
September 14, 2010 at 12:56 PM

हिहिहि.......मनु जी को इतना इज्जत देने के लिए धन्यवाद,,आपने तो इनको कही का नहीं छोड़ा,अगर ये इस ज़माने में आपके सामने होते तो पता नहीं इन बाबा का क्या हाल होता....???????हिहिही