औरत के विऱुद्ध औरत

Posted By Geetashree On 5:18 AM

सास बहू से परेशान है, बहू सास से..ये कोई नई बात तो है नहीं। ये सिलसिला प्रेम की तरह ही आदिकालीन है। रिश्ते के साथ साथ ही उसकी जटिलताएं भी पैदा होती हैं। आप लोकगीतो को सुने, लोककथाएं सुने..हरेक जगह आपको सास-बहू रिश्तों की जटिलता का महागान सुनाई देगा। पिछले कई दिनों से एक खबर को मैं सिर्फ इसलिए नजरअंदाज कर रही थी कि उस पर लिखना अपने ही विरुध्द होना है। लेकिन जब बार बार कोई चीज एक ही रुप धर कर सामने आ जाए तो क्या करें। रहा नहीं गया। बहुत सोचा..किसी विचारक, किसी समाजशास्त्री की तरह...शायद उनकी तरह विचार ना कर पाऊं..मगर अपनी तरह, जरुर सोच सकती हूं।

पुरुषों की तरफ से उछाला गया एक बहुत पुराना जुमला है...औरत ही औरत की दुश्मन होती है। एसा कहकर हमेशा वे अपनी भूमिका से औरतों का ध्यान बंटाते रहे हैं।बल्कि घरेलु मामलों में तो बाकायदा औरत के खिलाफ औरत को इस्तेमाल करने का खेल खेलते रहे हैं हमेशा से। एक औरत को दूसरी से भिड़ाने की कला में माहिर पुरुषों को आनंद आ रहा होगा कि घर का झगड़ा लेकर उनकी औरतें सड़क पर घर की दूसरी औरत के खिलाफ खड़ी हो गई है। उनके चेहरे सास जैसे हैं और हाथों में नारों से पुती तख्तियां। वे अपनी बहुओं के खिलाफ खड़ी है।

सासो ने अब अपना यूनियन बना लिया है। देशभर की लगभग 700 परेशान सासो ने मिलकर आल इंडिया मदर्स-इन ला प्रोटेक्शन फोरम( एआईएमपीएफ) बना लिया है और अब बहू से उसी मंच से मोर्चा लेने को तैयार हैं। लगता है ये हारी हुई औरतो का फोरम है जो जंग जीतने के दावपेंच सीखने के लिए तैयार किया गया है। फोरम कार्डिनेटर नीना धूलिया ने कई अखबारों में बयान दिया है कि कई प्रताड़ित सांसे लंबे समयसे एक दूसरे के संपर्क में थीं। अब उन्हें हमने एक मंच दे दिया है। सास की इमेज इस कदर खराब कर दी गई है कि बहुओं की शिकायत पर पुलिस और समाज सास को ही दोषी मानता है।
टीवी में भी इन्हें वीलेन दिखाया जा रहा है, जबकि जीवन में सासें ज्यादा प्रताड़ित हो रही हैं। धूलिया को महिला आयोग से भी शिकायत है...कहती हैं, वह बहुओं का आयोग बन कर रह गया है। हम चाहते हैं कि आयोग सास की भी शिकायत सुनें, जिस तरह से बहुओं की सुनता है। इस फोरम ने हाल ही में हुए नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे का हवाला देता है जिसमें कहा गया है कि लड़कियां ससुराल से ज्यादा मायके में हिंसा का शिकार होती हैं। 15-49 साल की महिलाओं के बीच हुए सर्वे के मुताबिक 13.7 प्रतिशत महिलाएं अपनी मां से और 1-7 प्रतिशत अपनी सास के जरिए हिंसा का शिकार बनती हैं।

फोरम का तर्क है कि वैज्ञानिक रुप से तय हो चुका है, आंकड़े साबित कर रहे हैं कि सासो को बेवजह बदनाम किया जा रहा है। असल जिंदगी में तो सासें ही पीड़ित हैं...जो सबकुछ चुपचाप सहन कर ले रही हैं।
एकबारगी में आपको ये लग सकता है कि ये मामला सीधे सीधे सासो की छवि बदलने की मंशा से जुड़ा है। नहीं...मामला इतना सीधा नहीं है। इसकी तह में जाएं..फोरम का उद्देश्य भांपिए। इनका अगला कदम दहेज कानून और घरेलु हिंसा कानून में बदलाव के लिए होगा। ये है असली मकसद। बहुओं को सताने, जलाने, घर से निकालने में सबसे आगे आगे रहने वाली सासों को भी पकड़े जाने पर जेल-यात्रा करनी पड़ती है, पुरुष के साथ साथ। जब पुरुष बहू को दबोचता है तब उसके उपर मिट्टी तेल कौन डालता है, कौन है जिसकी उंगलियों से आग की चिंगारी निकलती है..जिसमें एक जिंदा मासूम लड़की जल कर भस्म हो जाती है।

कौन है जो बहू के घर आने पर दहेज का सामान गिनती है और कम पाने पर सात पुश्तों को कोसती है। कौन है जो बेटे की पसंद की औरत को जीवन भर मन से स्वीकार नहीं पाती और उस औरत के रुप में अपनी हार मानती रहती है।

कौन है वो, जो बहू पर सबसे पहले ड्रेसकोड लादती है। बेटी बहू के लिए घर में दो नियम लागू करती है।

कौन है वो जिसके आते ही बहू को अपना रुटीन और रवैया दोनों बदलना पड़ता है।

कौन है वो..बहू के घर में आते ही जिसकी तबियत कुछ ज्यादा ही खराब रहने लगती है और रोज रातको पैर दबवाए बिना नींद नहीं आती।
कौन है वो जिसे बहू आने के बाद अपनी सत्ता हिलती हुई दिखाई देती है। कौन से वे हाथ जो सबसे पहले लडकी के दुल्हन बनते ही उसके चेहरे पर घूंघट खींच देते हैं।

और कितनी ही बातें हैं...कहने सुनने वाली...कुछ याद है कुछ नहीं।

जिस सर्वे का सहारा लेकर फोरम की जमीन तैयार हुई है, उसमें मायके के उपर उंगली उठाने का मौका मिल गया है। मायके में लड़की को शादी से पहले का ज्यादा वक्त बीताने का मौका मिलता है। जाहिर हरेक तरह के अनुभव होंगे। मां कभी अपने बच्चों के प्रति हिंसा से नहीं भरी होती। उसके पीछे लड़की को सुघड़ बहू बनाने की मंशा होती होगी..अपना समाज लड़कियों को बोझ समझने वाला समाज है..लड़कियां तो दोनों जगह मारी जा रही हैं। अगर .ये सिलसिला लंबा है...तो क्या सासें कभी बेटी या बहू नहीं रही होंगी। खुद को उनकी जगह रख कर देखें। कैसे भूल जाती है अपने दिन..उनके साथ भी तो सा ही हुआ होगा। फिर वे इस व्यवस्था के खिलाफ क्यों नहीं उठ खड़ी होतीं।

वो तो भला जानिए कि इन दिनों बहूएं पति के साथ रहती हैं, संयुक्त परिवार टूट रहे हैं, कामकाजी हैं तो दूसरे शहर में हैं...कम मिलना होता है...प्रेम बचा हुआ है। एकल परिवार पर दुख मनाने वालों...साथ रहकर देखो...घर में दो अलग अलग फोरम की सदस्याएं जब टकराएंगी तब अपनी शामें किसी क्लब में या किसी महिला मित्र के साथ बैठ कर गम गलत करने का रास्ता तलाशते नजर आओगे। एसा नहीं कि इन दिनों सास-बहूएं साथ नहीं रहतीं। कई परिवार अभी साथ हैं..उनमें आपसी सामंजस्य भी अच्छा है। आपसी समझदारी हो तो मामला संगीन नहीं हो पाता। इस परिवार की बहू ना तो आयोग जाती है ना सास को किसी फोरम पर दहाड़ने की जरुरत पड़ती है।
ये सिर्फ शिगूफे के लिए बनाया गया संगठन है तो कोई बात नहीं...अपनी बेटी की सास को भी सदस्य
बनाने को तैयार रहें...
इस तरह के संगठन पुरुषों को मनोरंजन देते हैं और औरतो की लड़ाई को कमजोर करते हैं।
एक किस्सा हूं...एक ससुर महोदय ने अलग अलग घरों में रहने वाली दो बहुओं से एक ही सवाल पूछा और अलग जवाब पाए। सवाल था..इस घर की मालकिन कौन है, तुम या सासु-मां
छोटी बहू का सीधा जवाब-मैं हूं। यहां मैं रहती हूं, सासुमां जहां रहती हैं वे वहां की मालकिन हैं, मैं यहां रहती हूं....
इस सवाल जवाब से अनभिज्ञ बड़ी बहू से यही सवाल पूछा--सास की मौजूदगी दोनों जगह थी।
बड़ी बहू का जवाब--सासूमां हैं...वे जब तक यहां रहेंगी वह ही मालकिन, उनके जाने के बाद मैं...। जबाव दोनों सही...सोचिए कि कहां क्या हुआ होगा।

संजय तिवारी
September 12, 2009 at 3:46 PM

आपकी लेखनी को मेरा नमन स्वीकार करें.

Pratibha Katiyar
September 13, 2009 at 5:00 AM

गीता जी, बड़ी बारीक लाइनें हैं. बात बस इतनी है कि चेहरे भले ही सास के हों, भाभी के, ननद के, बहू के. एक-दूसरे के खिलाफ खड़े इन चेहरों के पीछे मानसिकताएं किसकी हैं यह ध्यान देना जरूरी है.

विनीत कुमार
September 13, 2009 at 5:08 AM

घर में दो अलग अलग फोरम की सदस्याएं जब टकराएंगी तब अपनी शामें किसी क्लब में या किसी महिला मित्र के साथ बैठ कर गम गलत करने का रास्ता तलाशते नजर आओगे।....एकदम सही बात।
स्त्रियों की हक की लड़ाई के बीच इस तरह का सेग्मेंटेशन उसके मोर्चे को किसी भी स्तर पर मजबूत तो नहीं ही करता है हां इससे इतना जरुर होगा कि स्त्रियों का ये तबका इस बात पर फोकस हो जाएगा कि ये तो शुरु से ही सही हैं..सारी आग तो उस बुढ़िया की लगायी हुई है। एक बार फिर मर्दवादी औजार काम कर जाएगा।

renukhantwal
September 13, 2009 at 10:19 AM

hi didi
aapki baat mein dam hai. waise bhi yadi aurat yeh jaan le ki aurat hi aurat ki dushman nahi hoti balki aadmi 2 mihilao ko ladte huye dekhne ka shukh paane ke liye ladane ki koshish karta hai. aur adhikansh mamlo mein wah safal bhi ho jata hai. agar kisi ko meri baat par yakin na ho to kabhi chup chap se kisi purush ka chehra tab dekhiye jab 2 mahilayein aapas mei lad rahi hoon. us samay purush ke chehre par aapko jeet aur shukoon ki muskan dekhiye. aaisa lagta hai jaise wah muskan bool rahi ho. o morkh mahilao humse barabri karne chali thi tum? dekho humne tumhein ki lada diya. ha ha ha....
renu khantwal

अनंत विजय
September 13, 2009 at 11:01 AM

बहुत सही हुआ है । राजेन्द्र यादव जी को अब तय करना पड़ेगा कि वो किधर जाएं । स्त्री विमर्श चलाने के लिए किस फोरम पर जाएं

सुशीला पुरी
September 13, 2009 at 10:11 PM

अपने विरूद्व होना नही है ये ............और अपनी तरह तो हम सोच ही सकते हैं ,आपने जो सवाल उठाये हैं वह हैं तो बहुत पुराने पर आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं ...........कारण बस इतना सा है की हम औरतें अपनी आँखें बंद करके सोचती हैं .....और उनकी साजिशों की तरफ ध्यान देतीं .

Rangnath Singh
September 14, 2009 at 1:09 AM

SAASBHI KABHI BAHU THI....

aapne jo bhi likha us sab maine kbhi dhyan nhi diya..isliye sab kuchh achha laga...mera vyaktigat anubhav SAAS-BAHU ka dvand ghar ke bhitar badalati manyatavon ke bich ka dvand hai. maine aksar saas log ko yhi kahte suna hai ki HUMARE JAMANE MEN TO !! aur yhi baat maa log betiyon ko bolti hai !!!
aur jb maa log se BAHU ka samna hota hai to...MAA log aur bhi kadak ho jati haiin...bete ki byahata unhe khunte me bandhi gay si lagti hai...mere dekhe to mul vivad is bat par rahta hai ki, BETA kiska hukm jyada manta hai... ?? ghar ke bhitar ki simit satta par varchasva ki ye jang har ghar ki kahani hai...shes fir kbhi...BAHU AANE KE BAD !!
aapka blog apne blog par laga rahhaa hun ummid hai anumati mil jayyegi...

Kajal Kumar
September 15, 2009 at 9:25 AM

फ़ोटो से पता चला कि बेलन पर भारत का एकाधिकार नहीं है

अविनाश वाचस्पति
September 19, 2009 at 3:56 AM

अमर उजाला के ब्‍लॉग कोना में इसकी चर्चा हुई है। बधाई स्‍वीकारें। लिंक देखें http://blogonprint.blogspot.com/2009/09/blog-post_904.html