प्रसून जोशी
मेरे परिवार में एक लड़की की शादी उसकी मर्जी के खिलाफ की जा रही थी, लेकिन उस लड़की में अपनी इच्छा अपने ही परिवार वालों को बता पाने का साहस नहीं था।
लोकलाज और संकीर्ण सामाजिक मान्यताओं की वजह से वह लड़की अपने ही पिता को यह नहीं कह पा रही थी कि उसे यह शादी नहीं करनी। देश की आजादी के 60 साल बाद भी स्त्री की ऐसी दशा अविश्वसनीय लगती है। मगर यह कड़वा सच है कि इतने सालों बाद भी भारत में महिला वहीं की वहीं है।
स्त्री को मां, देवी, त्याग की मूर्ति और न जाने कितने ही ऐसे दर्जा देकर जरूरत से ज्यादा उठा दिया गया है। दरअसल इन दर्जों के बोझ से स्त्री उठने की बजाय दब गई है। इन खोखले दर्जों के भार तले वह पिस रही है। अपनी आम इच्छाओं का गला दबाकर वह लगातार समाज द्वारा तय किए अपने तथाकथित कर्तव्यों को निभाए चली जा रही है। उसे ऐसी परिभाषाओं में जकड़ दिया गया है, जहां समाज की उस पर पूरी पकड़ हो। मगर वह बेचारी यह समझ ही नहीं पाती कि यह पुरुष प्रधान समाज का षड्यंत्र है।
शादी के बाद अपने पति को नाम से न बुलाना, घर के सदस्यों को खिलाए बगैर खाना न खाना और न जाने कितनी ही ऐसी मान्यताएं हैं, जिन्हें वह सदियों से जस-का-तस निभा रही है। संस्कार के नाम पर व्यक्तित्व को बांध देना कहां का न्याय है? बचपन से ही नारी को इन्हीं संस्कारों की घुटी पिलाई जाती है और वह भूल जाती है कि आखिर वह खुद क्या चाहती है। सदियों से यही होता आ रहा है। मैं इसे नारी की परतंत्रता समझता हूं, जिससे उसे मुक्ति मिलनी ही चाहिए। यह हालत तो हमारे तथाकथित शहरी और सभ्य समाज की है। हालांकि गांवों का तो मैं जिक्र ही नहीं कर रहा हूं। वहां तो स्थिति इससे भी बदतर है।
नौकरीपेशा महिलाओं का जिक्र करें तो नौकरी उनके लिए एक अतिरिक्त जिम्मेदारी है। खाना बनाने से लेकर बच्चों के लालन-पालन, और बाकी घरेलू जिम्मेदारियां के बीच वह नौकरी भी करती है। साथ ही घर और ऑफिस के बीच सामंजस्य बैठाना भी उसके जिम्मे है। विडंबना तो यह है कि खुद औरत ने ही इसे अपनी नियति मान लिया है। उसे कभी नहीं पूछा जाता कि वह क्या चाहती है? वह स्वयं की अपेक्षाओं में ही पिसी जा रही है। अपने आप को खोजने की इस यात्रा में वह नितांत अकेली है। आज भी वह अपने मायने ढूंढ रही है। लोग शायद भ्रमित हैं कि जिस देश में एक महिला राष्ट्रपति हो, वहां यह कैसे हो सकता है। मगर मैं साफ कर दूं कि अपवाद के आधार पर समाज का मूल्यांकन नहीं किया जा सकता।
दरअसल, सदियों से औरत के दिमाग की इस तरह कंडिशनिंग कर दी गई है कि अगर वह अपनी बंधी-बंधाई मर्यादाओं के खिलाफ आवाज उठाए तो खुद उसे अपराधबोध होने लगता है कि ऐसा करके मैं नारी कहलाने लायक नहीं रहूंगी। स्त्री की क्षमता पर कोई संदेह नहीं किया जा सकता क्योंकि प्रकृति ने खुद नारी को सबसे बड़ी कृति की जिम्मेदारी सौंपी है। वह है, एक बच्चे को जन्म देने की जिम्मेदारी।
व्यक्ति अपनी मां के हाथ का स्वाद हमेशा याद करता है। यह एक परंपरा-सी है। मैं ऐसे समाज की कल्पना करता हूं, जहां व्यक्ति अपने पिता के हाथ के खाने को हमेशा याद रखे। यह सिर्फ एक उदाहरण है। मेरा सपना एक ऐसे समाज का है, जहां स्त्री और पुरुष को बराबरी का दर्जा हासिल हो। स्त्री को अपने हक के बारे में सोचने की और अपने फैसले लेने की स्वतंत्रता हो। हर एक संस्कृति तरल होती है., वह सतत प्रवाहित रहती है। उसमें लगातार बदलाव आता रहता है। कबीर की तरह चदरिया को ज्यों-की-त्यों धर देने की बजाय उसमें बदलाव लाना जरूरी है। नारी की परतंत्रता से जुड़ी है मेरी यह कविता...
बाबुल जिया मोरा घबराए, बिन बोले रहा न जाए।
बाबुल मेरी इतनी अरज सुन लीजो, मोहे सुनार के घर मत दीजो।
मोहे जेवर कभी न भाए।
बाबुल मेरी इतनी अरज सुन लीजो, मोहे व्यापारी के घर मत दीजो
मोहे धन दौलत न सुहाए।
बाबुल मेरी इतनी अरज सुन लीजो, मोहे राजा के घर न दीजो।
मोहे राज करना न आए।
बाबुल मेरी इतनी अरज सुन लीजो, मोहे लौहार के घर दे दीजो
जो मेरी जंजीरें पिघलाए। बाबुल जिया मोरा घबराए।
शायद कभी हम भी ऐसे समाज का निर्माण कर सकें जब वे सब जंजीरें पिघल जाएं जिन्होंने स्त्री को बांध रखा है।
(यह आलेख 16 अगस्त 2009 के नवभारत टाइम्स में प्रकाशित हुआ है)
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August 20, 2009 at 5:02 AM
ये हक़क़ीत है और तब तक रहेगी जब तक कि हम इसके ख़िलाफ़ ठोस कदम नहीं उठाते , सबसे पहले महिलाओं को ही सोचना पड़ेगा , उनको लगता है थोड़ी बहुत आर्थिक और मनमर्जी से गूमने की आज़ादी मिल गई तो सब कुछ मिल गया, इस भरम से निकलना होगा...छलावे से बाहर आना होगा....
August 20, 2009 at 7:42 AM
महिलाओं की सामाजिक स्थिति में काफी सुधार हुआ है और यह निरन्तर जारी है। अतः चिन्ता की कोई बात नहीं। परम्परायें कभी एकाएक नहीं टूटतीं। लोहार के यहाँ जंजीर तोड़ने वाली बात पसन्द आयी।
शुभकामना।
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.com
August 20, 2009 at 8:12 AM
गीताश्री जी आपका धन्यवाद जो आपने प्रशून जोशी जी का लेख यहाँ लगाया..........कितनी सुन्दर और स्वप्निल बात प्रशून जी ने कही ----''वह दिन कब आएगा जब हम पापा के हाथों के खाने का स्वाद याद रखेंगे '' वह दिन तब आएगा प्रशून जी ;जब आप जैसे लोग इस पर बराबर कलम चलाएंगे .
August 20, 2009 at 8:31 AM
चिंता की बात है श्यामल जी. सुधार उतना हो नहीं रहा जितना दिख रहा. और जो दिख भी रहा है उससे रोज नई-नई समस्याएं खड़ी हो रही हैं. मुझे खुशी है कि प्रसून जी ने बातों को उलझाये बगैर बेहद सादगी से पुख्ता बात की है. समझ को खोलने की $जरूरत है. ऐसा सोचना ठीक है इसलिए ऐसा सोचेंगे की तर्ज से लड़कियों को भी बचना होगा. अच्छा लेख पढ़वाने के लिए शुक्रिया गीता जी!
August 20, 2009 at 11:25 AM
गीता जी आज तो हद ही हो गयी एक ही लेख दो दो बार मेरे सामने घूम के आ चुका है अगर विस्वाश नहीं तो यहाँ देखे ,, हाँ मै इस बात से सहमत हूँ कि स्त्रियों कि दशा में जो मध्य युग (मुस्लिम और अंग्रेजो कि गुलामी के काल को मैंने मध्य युग का दर्जा दे रखा है )जी गिराबट आई थी उसमे सुधार जितने होने चाहिए थे उतने नहीं हुए (आप के हिसाब से बिलकुल नहीं हुए )क्या आप मुझे बाताने का कस्ट करेगी कि आजादी या स्वतंत्रता क्या है क्या आप सत्ता परिवर्तन को स्वतंत्रता कहते है अगर हाँ तो हम आजाद हो गए और हमें आजादी मिल गयी ,, मगर केवल सत्ता परिवर्तन स्वतंत्रता नहीं स्वतंत्रता का मतलब है स्व तंत्र मतलब अपना तंत्र मतलब सारी व्यवस्थाये हमारे समाज को नजर में रख कर बनायी गयी हो मगर ऐसा नहीं है हमने सत्ता हस्तांतरण तो किया मगर स्वतंत्र नहीं है अपनी कोई व्यवस्था नहीं हम उन अंग्रेजो कि कि बनायी हुई व्यवस्थाओ से ही शासन कर रहे है ,, जो बनाये ही भारतीय समाज को गुलाम बनाने के द्र्स्टी कोण से थे ,,, सारार्थ यही है किसी की भी स्तिथि (चाहे वो स्त्री हो या फिर अन्य असमानता का जीवन जी रहे लोग )तब तक सुधर नहीं सकती जब तक व्यवस्था परिवर्तन नहीं होता ....
सादर
प्रवीण पथिक
9971969084
August 20, 2009 at 8:29 PM
yeh toh sach hai ki aurat vahin hai per aise vichaar purushon ki ore se aane lage hain aur unako samrthan bhi mil raha hai .. ye sarahaniya hai .. prasun ji ko lekh ke liye dhanywaad
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