दो साल पहले मैं चीन और तिब्बत की यात्रा करके लौटी तब से तिब्बत मेरे दिल दिमाग में घूम रहा है। मैंने चीन पर कई लेख लिखे मगर तिब्बत पर लिखने की इजाजत नहीं मिली. सारे अनुभव, सारी भावनाएं धरी रह गईं। अब जब तिब्बत अपनी गुलामी के 50 साल पूरे कर चुका है तब मुझे उनकी पीड़ा याद आई. गुलाम देश के लोग कैसे जीते हैं, उनका जीवन कैसा होता है, वे कैसे जीते हैं वो देखा ल्हासा जाकर. तभी गुलामी भारत की याद आई... अपने पूर्वजो के चेहरे मिलते जुलते से लगे।मैं सिलसिलेवार वहां का अनुभव लिखना चाहती हूं..यही मेरी दुआ है उनकी आजादी के लिए।
तिब्बत और चीन के बीच जब पहले दिन रेल गाड़ी चली तो तिब्बत के युवा गायक उस पर सवार हुए और गाना गाते रहे... रेलगाड़ी से पेइचिंग जा रहे हैं हम, बर्फीली पठार की शुभकामनाएं साथ लेकर... -छिंगहाई तिब्बत का सूर्य लेकर जा रहे हैं हम...। श्वांग उत्साह में भूल गए थे कि वह ट्रेन उनके देश को चीन के शिकंजे में और कसने का औजार बनने वाली है। श्वांग अपने देश की उस पीढ़ी का प्रतिनिधित्व करते हैं, जिसने चीन की जकड़न वाले तिब्बत में आंखें खोली हैं और जिसकी आंखें चीन की चमक में चौंधिया रही हैं।
तिब्बत में चौदहवें दलाई लामा का सिर्फ नाम भर सुनने वाली पीढ़ी की पीड़ा तब गहरा जाती है जब वह अपनी गुलामी की पचासवीं वर्षगांठ का मातम मनाने वालों में शामिल होती है। भारत से आए लोगों के युवा तिब्बती करीब आते हैं। दिल पर हाथ रखते हैं और फुसफुसाते हैं, क्या आपने कभी दलाई लामा को देखा है. ल्हासा स्थित दलाई लामा के पोटाला महल में तेरहवें दलाई लामा तक की चर्चा होती है। मौजूदा दलाई लामा की चर्चा नहीं होती। चर्चा पर प्रतिबंध है।
ल्हासा के बाखोर बाजार की दुकानों में एक दुकानदार दबी जुबान में आरोप लगाता है कि आबादी में चीन के हान मूल के लोगों की संख्या बढ़ रही है। जबकि सरकारी आंकड़े कहते हैं कि यहां तिब्बती अब भी 92 प्रतिशत हैं। यहां हान की आबादी 40 प्रतिशत है और ऊंचे पदों पर चीनी लोग काबिज हैं। सरकारी नौकरी के लिए चीनी भाषा का ज्ञान आवश्यक कर दिया गया है। इसकी वजह से तिब्बती पिछड़ रहे हैं।
तिब्बत भाषा के एकमात्र अखबार तिब्बत डेली में भी महत्वपूर्ण पदों पर चीनी लोग बैठे हैं। तिब्बतियों की नजर में हर चीनी अपनी सरकार का जासूस है और कुछ तिब्बतियों को भी जासूसी के लिए इस्तेमाल कर रही है।
पहले चीन और तिब्बत के बीच आवागमन महंगा और कठिन था। रेल ने रास्ते आसान कर दिये हैं. ल्हासा में चीन ने बड़ी बड़ी इमारतें खड़ी कर दी हैं। उन पर चीनी भाषा में विशालकाय होर्डिंग्स लगी हैं। यह चकाचौंध नई पीढी को लुभा रही है।
लेकिन यह 'लुभाना' सबके लिए एक समान नहीं है. युवाओं में ऐसे लोगों की संख्या काफी बड़ी है, जो चीन से अलग अपने सपने देखते हैं, सपने कि जिनमें उनका देश आज़ाद हो...... युवा तिब्बतियों को लगने लगा है कि अपनी पहचान और संस्कृति को बचाए रखें तथा विकास को स्वीकारते हुए आजादी की अपनी मांग पर कायम रहें। इसके उलट चीनी सरकार सोचती है कि विकास में जब तिब्बतियों की भागीदारी बढेगी तो स्वतंत्रता की मांग खुद ब खुद ठंडी पड़ जाएगी।
May 26, 2009 at 9:12 AM
अच्छा लगा आलेख। कुछ नयी जानकारियाँ भी।
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.com
May 26, 2009 at 11:19 AM
देखिये, वे अपनी साजिशों से नै पीढी को अपनी गिरफ्त में लेते जा रहे हैं. अब तो बहुत से तिब्बती दलाई लामा से भी मुंह मोड़ रहे हैं. मुझे तो हालात में तबदीली की सूरत नज़र नहीं आ रही. आप आशावान हैं, जानकार अच्छा लगता है.
हिंदी में प्रेरक कथाओं और संस्मरणों का एकमात्र ब्लौग http://hindizen.com ज़रूर देखें.
May 26, 2009 at 11:28 PM
दुर्भाग्यवश, तिब्बत और म्यांमार बाक़ी दुनिया द्वारा भुला दिये गए देश हैं...
May 27, 2009 at 12:55 AM
सच कहा काजल जी आपने. दुनिया ने तिब्बत को भुला दिया क्योंकि वह एक ताकतवर देश के कब्जे में है। उसकी आजादी दुनिया के एजेंडे में नहीं है. श्याम जी, मैं आपका ब्लाग देखने वाली हूं.
निशांत जी...तिब्बत को मैं सिर्फ शुभकामनाएं ही दे सकती हूं. उम्मीद क्यों छोड़ी जाए. उम्मीद तो सीरिया ने भी गोलन हाइटस के प्रति नहीं छोड़ी है.होगा क्या सबको पता है...
May 27, 2009 at 2:51 AM
आपके अनुभवों को आत्मसात कर अच्छा लगा.. साधुवाद..
May 29, 2009 at 3:49 AM
shukriya bahut hi rochak varnan kiya aapne tibbat aur seria ka. jahan tak tibbat ki baat hai useke saath pareshani yah thi ki uske saath ek mazboot padosi desh ki kami thi jiska laabh china ne uthaya bharat china ke samne kabhi bhi ek mazboot desh ki tarah nahi dikhayi diya hamare neta china ke sambandh main bahut hi soch samajh kar bolte hai fir chahe wo sikkim ya arunachal pradesh ka masal kyon na ho, tibbat ka saath dena to dur ki baat hai.seria ke baare main jankar bahut achcha laga lekin main fir bhi israel ka hi samrthak hun ki woh ek chota desh ho kar bhi charo aur se shatruon se ghira hone par bhi apne logo apne desh ke liye dusaro par atteck karne se piche nahi hota. wahi hum sirf chetavani dekar hi kaam chala lete hai. israel ki bahaduri ki hame sarahana karni chahiye.
May 31, 2009 at 1:52 AM
आपके अनुभवों से गुजरते हुए कामतानाथ जी का उपन्यास पिघलेगी बर्फ याद आ गया. सुंदर और सार्थक लिखा आपने गीता जी. चीन पर कई लेख लिखे पर तिब्बत पर लिखने की आजादी नहीं मिली. यह लाइन अपने आप में एक बड़ी दास्तां है. कितना कुछ छिपा है इसमें. ऐसे कितने ही मुद्दे हैं जिन पर लिखना जरूरी होता है लेकिन इ$जाजत नहीं होती...
June 7, 2009 at 3:13 AM
गीता जी आपका ब्लाग और उसके तेवर देखकर आपसे दोस्ती करने का मन हुआ। वैसे आपको तो दुश्मनों से भी परहेज नहीं है। सीरिया पर आपकी जानकारी और बीच में प्रतिभा कटियार की मारक कविता ने जबरदस्त प्रभाव पैदा किया है। मैं इस कविता को सीरिया और हिन्दुस्तान दोनों के संदर्भ में पढ़ रहा था। चीन,तिब्बत और नेपाल की बात तो हम करते ही नहीं। क्योंकि पाकिस्तान से फुरसत ही नहीं मिलती।
June 9, 2009 at 9:42 AM
यात्रा संस्मरण लिखनेवालों की कमी है हिंदी साहित्य में ...डटे रहिए , प्रसिद्धि कदम चूमेगी
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