हिंदी सिनेमा के किन किन गानो में स्त्री मुक्ति की ध्वनि आती है..ये इन दिनों मेरे शोध का विषय बन गया है.ये दिलचस्पी जगाने वाले कथाकार मित्र तेजिंदर शर्मा हैं. उन्होने ये नहीं सोचा होगा कि बहस इस दिशा में भी मुड़ सकती है. अब आप किसी मुक्तिकामी स्त्री से बहस करेंगे तो संभव है कि बहस वहां तक जाएगी. वे हमें बता रहे थे कि जिन गानों की धुने अच्छी होती हैं उनके बोल पर कोई ध्यान नहीं देता, वो अननोटिसड रह जाते हैं.
जैसे 1965 में आई 'गाइड' फिल्म का गाना सुनें...कांटो से खींच के ये आंचल...तोड़ के बंधन बांधी पायल...कोई ना रोको दिल की उड़ान को...दिल वो चला..। मैंने मित्रवर को वहीं रोका...अरे हां..मैंने भी कभी गौर नहीं किया था...ये तो स्त्री मुक्ति का गान है...संभवत पहला गाना. शैलेंद्र आज से 40 साल पहले जो कुछ रच रहे थे, वह महज गीत भर कहां था ! "सजन रे झुठ मत बोलो" लिखने वाले शैलेंद्र यहां दर्शन का एक ऐसा संसार रच रहे थे, जो अब तक अपने यहां अलक्षित किया गया था. विवाहेत्तर संबंध तो हमने देखा था और एक धनाढय, विवाहित नायिका का एक कुंवारे गाइड के साथ रोमांस भी...अपने नपुंसक पति को वो अंधेरे से बाहर आने जैसा मानती है और गाने में आगे गाती है..कल के अंधेरों से निकल के, देखा है आंखें मलते मलते, फूल ही फूल, जिंदगी बहार है...तय कर लिया....।
पहले तो नायिका कांटों से अपने आंचल को खींच निकालती है और बंधन वहीं झनझना कर टूट जाते हैं. बंधन तोड़ती है, सायास और अपने पांव में फिर से पायल बांध लेती है...इसके बाद उसकी जिंदगी में उड़ान ही उड़ान है...एक स्त्री की उड़ान है..सामाजिक, पारिवारिक बंधनों से मुक्ति की उड़ान...इसके बाद उसकी इच्छाओं का नीला आकाश है, सीमाहीन..एक ऐसे पुरुष का साथ है, जिसे वह अपनी मर्जी से चुनती है.
सच कहूं, आज पहली बार मुझे पायल थोड़ी ठीक लगी. मैं अब तक उसे गुलामी, बेड़ी के प्रतीक के तौर पर देखती थी, उसकी खनक से भी मुझे गुलामी की धुन सुनाई देती थी. पायल के खिलाफ मेरी आवाज दोस्तों को अक्सर सुनाई देती रही है. स्त्री के पांव में बेड़ी कितनी लयात्मक हो सकती है, मैं सोचती. मेरी राय बदल गई. आज से उसे उड़ान का प्रस्थान बिंदू और आजादी की लय मानूंगी.
नायिका की मनस्थिति की कल्पना कर रही हूं. जिसे हर गूंज में फिर से जीने मरने की तमन्ना सुनाई देती है..। तय कर लिया है...मुक्ति के रस्ते में जिंदगी बहार है, इसके लिए कांटो से दामन छुड़ाना जरुरी है. इन कांटों के बारे में और स्त्री मक्ति के और गानों के बारे में कुछ और बातें अगले पोस्ट में..तब तक मेरी खोज जारी है.
March 17, 2009 at 11:41 AM
आज आपने एक नया रंग नया जादू जगाया है अपनी पोस्ट में , बधाई !
March 17, 2009 at 10:59 PM
नहीं गीता जी. आप गलत सोच रही हैं. असल में स्त्री को इसी तरीके से तो कैद किया गया था.
यह मुक्ति का गीत नहीं है. यह बंधन का गीत है. तिस पर तुर्रा यह कि यह बंधन तो स्त्री ने अपनी मर्जी से स्वीकार किया है.
तो यह खुद से स्वीकार किये जाने का जुमला प्रकारांतर में बंदिश की तरह ही होने के लिए ही अभिशप्त है. सिंदूर, टिकली, बिंदी, बिछिया, पालय...सब के सब इसी तरह लादे गये.
आप याद करें, पुरुषों ने कब इसी तरह स्त्रियों के लिए प्रेम में ही सही कोई चिन्ह अपनाया. नहीं न ?
March 18, 2009 at 12:57 AM
एक तू न मिला, सारी दुनिया मिले भी तो क्या है..., छोड़ दे सारी दुनिया किसी के लिए, ये मुनासिब नहीं आदमी के लिए... स्त्री हमेशा पुरुषों के लिए ही सोचती है। उसके बिना उसका संसार अधूरा है और उससे मुक्ति पा कर ही उसे लगता है वह आजाद है। अकेली है तो परेशान है, मर्द के साथ है, तो परतंत्र। बहरहाल गाने के रूप में यह मुक्ति का गान वाकई अच्छा है। लेकिन क्या इंसान के दूसरे रूप को अलग रख कर हम स्वतंत्र रहने की कोशिश नहीं कर सकते।
March 18, 2009 at 2:46 AM
post achchi lagi . is dristikod se socha hi nahi tha. sabse badi baat gana itna purana hokar bhi aaj bhi prasagik hai. yani stree- mukti ki ladai abhi jari hai aur lambi bhi...
Akanksha ji , sirf stree nahi purush bhi stree ke bina khud ko adhoora manta hai.man layak premika ya patni nahi milne par wo bhi doob jata hai...dono ko ek doosre ki jaroorat hoti hai. bus ye marketing ki baat hai koun apne ko achche se apni marketing kar leta hai...STREE ya PURUSH.
March 19, 2009 at 8:41 AM
payal hi nahi sare saunadrya prateekon men gulami ki hi to boo aati hai. kangan, choodi, bindi, jhumke. Inhi men bhatkakar to stri ko gulam banaya gaya. payal hi nahin sare bandhan tootne lage
hain geeta ji tabhi to trahimam macha hai....
March 19, 2009 at 9:54 AM
आप सही कह रही हैं प्रतिभा जी..मैं ये मानती हूं और इस पर बात भी खुल कर करती रही हूं.कमसे कम मैं इन प्रतीको को शुरु से परहेज के लायक मानती हूं..बहुत हद तक पालन भी करती हूं.ये भी सच है कि हंगामा भी इसी लिए मचा है.बहुत लड़ाई और हिम्मत जुटा कर जब हम प्रतीको से मुक्ति की तरफ जा रहे हैं, ठीक उसी वक्त हमारे धारावाहिक महिलाओं को उनसे जोड़ने में लगे हैं. क्या मजाक है.
March 22, 2009 at 8:37 AM
Geeta ji aapke blog ke bare me aaj edit page par coloum likha hai.
aap ise mere blog par bhi padh sakti hai.
March 23, 2009 at 2:54 AM
पुराने गानो कि बात हे अलग थी।
They are evergreen.
वहीदा रेहमान हमेशा से ही हमारी प्रिय अभिनेत्रि रही है। बहोत ही खुबसूरत फोटो है। बेहद अछी पोस्ट। इसके लिये आपको बधाई। Thanks for sharing.
March 24, 2009 at 10:33 AM
धन्यवाद प्रतिभा जी, मैंने देखा, पढा. अच्छा लगा.आपकी तस्वीर से आपको नहीं पहचान पाई.ब्लाग देखा तो याद आ गया.
March 27, 2009 at 9:00 AM
स्त्री-पुरुष को भारत-पाकिस्तान की तरह बांटना ठीक नहीं है। बिना प्रेम के क्या पुरुष जी पाएंगे...क्या खुश रह पाएंगी स्त्रियां...उनके रूपाकार सौंदर्य, स्वाधीनता और शृंगार के प्रश्नों से जूझने के लिए अभिशप्त हैं, उनकी लड़ाई लड़नी ज़रूरी है, लेकिन एक-दूसरे के अस्तित्व को स्वीकार कर, सहेज कर और दुलार कर ही...क्या यह सबकुछ घृणा और चीख जैसे भावों से नहीं घिरता जा रहा। दलित विमर्श के नाम पर भी ऐसी ही आंधी है. ये सही है कि सदियों से जो दलन हुआ है, उनके विरोध में ऐसी तीख़ी आवाज़ उठनी ही है, लेकिन साहब...तमाम पुरुष भी भावुक और मासूम होते हैं...उनकी भावनाओं-इच्छाओं और साहचर्य की बलि सिर्फ विद्रोह के नाम पर नहीं चढ़ाई जा सकती। वैसे, मुझे डर है कि ये सफाई भी छलने का एक और तरीका ना समझ ली जाए। अब बात गीताजी की इस नई पोस्ट की...ख़ूब ख़ूबसूरत और ताज़गी भरी है...आपको बधाई।
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