मनीषा मेरी बेहद करीबी दोस्त हैं. इनके स्वभाव के बारे में जानती थी. इनकी रुचियों, खूबियों का भी मुझे पता था, लेकिन और भी कुछ एसा था जो मुझसे या कहें जमाने से छुपा था (छुपाती रही हैं.). ये छुपा ही रहता. अगर मैंने कुछ लिखने को नहीं कहा होता. उदारमना मनीषा अपनी रचनाएं देने में इतनी कंजूस निकलेंगी ये भी अब पता चला. मनीषा अब भी नहीं चाहती थीं कि दुनिया को पता चले कि वे कविता या कहानी लिखती हैं. मेरे जिद करने पर उन्होने रचनाएं दे तो दीं मगर इस शर्त्त पर कि मैं इसे बिना नाम के लगा दूं. मै समझ सकती हूं उनका संकोच...लेकिन मैं नहीं मानी. कहानी भले कहानी की कसौटी पर खड़ी ना उतरे, कोई परवाह नहीं (हालांकि ये कौन तय करेगा). इस कहानी के सामाजिक सरोकार ने मुझे बेचैन किया. अपने आंगन के आतंक से लड़की की मुक्ति कहां संभव है.
आज जहां एक कविता या एक कहानी लेकर लोग साहित्यिक मंडली का हिस्सा बन जा रहे हैं वहीं मनीषा के भीतर यानी मन और डायरी दोनो के पन्ने कहानी और कविताओं से भरे हैं और मुझे पता नहीं चला. वह दिल्ली विश्वविधालय में स्पेनिश भाषा पढाती हैं और अब तक कई क्लासिक उपन्यासों और महान लेखकों की जीवनी का अनुवाद कर चुकी हैं. इनका हिंदी में हाथ तंग नहीं है फिर भी हिंदी में लिखने मे संकोच है. अंग्रेजी में लिखती हैं और स्पेनिश में बोलती हैं (क्लास में).
कई रचनाओं का हिंदी में अनुवाद करने वाली की रचनाओं का मैं अनुवाद करुं, मुझे अटपटा लग रहा था. मगर वे माने तब ना. मुझ पर हमेशा की तरह विश्वास रखते हुए ये काम मेरे माथे मढ दिया. सबसे पहले पेश है उनकी कहानी का अनुवाद. इसमें मेरा कुछ भी नहीं है. कहानी ज्यों की त्यों आपके सामने रख रही हूं इस उम्मीद के साथ कि कहानी जहां, जिन सवालों के साथ खत्म होती है वहां से कई और बड़े सवाल खड़े हो जाते हैं. कहानी पढेंगे तो आप अपने भीतर खुद इन सवालो का जवाब तलाशेंगे कि क्या मरने वाले के सारे गुनाह माफ कर दिए जाने चाहिए. पढें और बहस में शामिल हों....
-गीताश्री
कहानी
कोई बात नहीं पापा
मनीषा तनेजा
मेरे पास उस घृणित व्यक्ति को माफ करने, नजरअंदाज करने या उसे इंकार करने के लिए तकरीबन 20 मिनट थे. वह मेरा बाप था.
हम अस्पताल के एक कमरे में बैठे, जहां एंटीसेपिटक्स की गंध थी और वहां बुझे चेहरों वाली नर्सों की आवाजाही लगी हुई थी, जिनके लिए जिंदगी और मौत में कोई फर्क नहीं था....
आज वह इंसान मर रहा था लेकिन मेरी दादी मां नहीं होतीं तो आज मैं यहां इसके पास नहीं आती. इस जगह, जहां जिंदगी के ऊपर मौत का साया मंडरा रहा था, उस बेजान होते इंसान ने अपनी आंखें खोली और कहा, 'मेरा ये अंदाजा है कि मैंने तुम्हारे साथ बहुत बुरा बर्ताव किया है.'
वह मुझसे यह जानना चाह रहा था कि क्या उसके ऐसे आचरण को माफ भी किया जा सकता है? क्या मैं उसे माफ कर पाऊंगी? उसे उम्मीद थी कि मैं कहूंगी, 'पापा, आप तो बुरे थे, फिर भी मैं आपको माफ करती हूं.' लेकिन...
तब मेरा सवाल था कि जो भाषा मैं और वह बोला करते थे, क्या उसे मैंने उसके शब्दकोश से सीखा था? मैं बुरी थी. तुम बुरे थे.
जिस पल उसने अपनी बातें खत्म की थी, उस समय से मेरी समझदारी का मीटर तेजी से चलना शुरू हो गया. मेरी चुप्पी उसे कहने का मौका दे रही थी और वह कह रहा था कि मैं ऐसा कुछ चाहता नहीं था जो मैंने किया. उसकी यही बात अपने आप में एक जवाब थी. अगर मेरा जवाब उससे अलग होता तो उसे वहीं दिया जाना था. यही वह घृणित व्यक्ति था, एक बिल्कुल बददिमाग या शायद बेचैन.
अब वह व्यक्ति मुझसे सवाल पूछने के बाद काफी दीन-हीन सा लग रहा था. वह चाह रहा था कि बिना किसी लाग-लपेट के, बिना कोई दया दिखाए मैं उसकी आलोचना करूं. और फिर मैं उसकी पीड़ा को महसूस करके उसे संतुष्ट होने का मौका दूं.
मेरी मां आज से 20 साल पहले दुनिया छोड़ गई थीं. तब मेरी उम्र केवल सात साल की थी. अपने ही पिता द्वारा उन दिनों सताया जाना मेरे लिए आज भी एक डरावने सपने की तरह है. कई रातों तक वह अपनी आठ साल की बच्ची के साथ बलात्कार करता रहा जो इस बात का अंदाजा भी नहीं लगा सकती थी कि उसके साथ क्या हो रहा है. किसी तरह मैं यह समझ पाई कि यह गलत है. बहुत गलत. उसके गंभीर परिणामों के बारे में जान कर इस पूरे मामले को समझना मेरे लिए और भी मुश्किल हो जाता.
हर दूसरे दिन दारू पीकर मारपीट से होने वाली दुश्वारियों को कम करने के लिए परिवार और पड़ोसियों ने कोई कदम नहीं उठाया. मेरी छह साल की छोटी बहन को इन प्रताड़नाओं से बचाने के लिए उस आदमी की बूढ़ी मां यानी मेरी दादी को बहुत अपमान और जिल्लत का सामना करना पड़ा. इन बातों को सोचकर मेरा खून खौल उठता है और अंदर से आवाज आती है, 'हां पापा, सच में तुम एकदम से हरामी थे.'
लेकिन मैंने ऐसा कभी नहीं कहा. मैंने फैसला किया कि मैं उसे अपनी माफी से महरूम नहीं करूंगी. फिर भी मैंने वह कहा, जिसे मेरे दिमाग ने, मेरी भावनाओं ने और यहां तक कि मेरे शरीर ने (जो अपनी तरह से सब कुछ जानता था) और मैंने एक झूठ माना. फिर भी मैंने कहा, 'नहीं पापा! कोई बात नहीं. हम पुरानी बातों को भूलें. यह तो बहुत पहले हुआ था.'
वह मुझे टकटकी लगाकर देखता रहा और धीरे से कहा, 'शुक्रिया'.
कुछ ही घंटों के बाद वह मर गया. मुझे विश्वास है कि वह शांति से मरा. मुझे लगता है कि वह समझ रहा था कि उसे माफी मिल चुकी है. चूंकि मैंने उसे बहुत आसानी से माफ कर दिया था इसलिए उसने असीम शांति का अनुभव किया और उसे लगा कि वह इसका हकदार था.
तो क्या मुझे शांति की समझ नहीं? क्या हमें यह नहीं सिखाया गया कि उदारता दिखाकर और दूसरों को माफ करके हम सुकून पाते हैं? और करूणा और पवित्रता क्या इसी का पुरस्कार नहीं हैं? और ऐसा क्यों किया मैंने? क्या इसलिए कि मैं किसी सतह पर उससे प्यार करती थी और किसी दूसरे तरीके से मेरे लिए उसके प्यार को भी महसूस करती थी? या यह कुछ ऐसा ही था जो प्राय: एक बाप और बेटी के बीच होता है. यहां तक कि मौत के साये में भी वह मुझसे खुली माफी की उम्मीद कर रहा था. मैंने उसे माफ कर दिया. ऐसा मैंने खुलकर किया. या... क्या मैंने ऐसा ही किया? इन सबके बावजूद क्या खून पानी से ज्यादा गाढ़ा है?
सवाल नहीं रुकते लेकिन इनका जवाब मेरी पहुंच के बाहर है. कई रातों तक मैं बिस्तर पर जागती आंखों से अपने अतीत में उन तर्कों को ढूंढती, जो मुझे मिल नहीं पाते....
October 21, 2008 at 3:31 AM
bahut khoobsurat
October 21, 2008 at 3:38 AM
bahut hi marmik...
October 21, 2008 at 4:47 AM
gita ji aap outlook vali gitashree ya koi aur.ajit anjum ji se bhi nahi poch paya.
October 21, 2008 at 4:52 AM
बहुत सुंदर
October 21, 2008 at 6:09 AM
कहानी बड़े सवाल खड़ी करती है । विस्तार की भी मांग करती है ।
October 21, 2008 at 6:57 AM
मनीषा जी ने एक कुशल कथाकार की तरह सब कुछ बुना है. क्राफ्ट के साथ-साथ जिस शिद्दत से उन्होंने उस बच्ची के दर्द को उकेरा है, उसके कारण मनीषा जी की कलम को चूम लेने का मन करता है. गीता जी, आपको भी बहुत-बहुत धन्यवाद.
October 21, 2008 at 7:02 AM
ambrish kumar जी, आपने सही पहचाना, आभार मानती हूं.
October 21, 2008 at 10:02 AM
गीता जी सबसे पहले आपको साधुवाद कि आपने मनीषा जी की कहानी छापी । ये कहानी कई बड़े सवाल करती है । एक मासूम जिसके साथ उसका बाप वर्षों तक बलात्कार करता रहा, उसका बचपन छीन लिया, जिंदगी भर तिल-तिल कर जीने को मजबूर कर दिया और कहानी में उसकी नायिका ने अपने पापी बाप को माफ कर न्याय नहीं किया । ऐसे बाप को तो जिंदा जला देना चाहिए । मारकर दफ्न कर देना चाहिए । माफी कैसे मिल सकती है । इतने बड़े गुनाह की सजा - माफी ये नहीं हो सकता । इस कहानी में विस्तार की गुंजाइश है,बड़े फलक पर सवाल उठाती इस कहानी पर साहित्य के शुद्धतावादियों को विषय को लेकर आपत्ति हो सकती है ।
October 21, 2008 at 9:57 PM
अब तक कहां थीं ? ये स्पेनिश और अंग्रेजी पढ़ाने का काम सैकड़ों, हजारों लोग इस देश में कर सकते हैं, लेकिन ऐसी कहानियां लिखने का सामर्थ्य उन सबमें से दर्जन भर के पास भी नहीं होगा. आप पढ़ाने-लिखाने का काम जारी रखें और कहानी लिखने का भी. हम आपसे स्पेनिश पढ़ने नहीं आ सकते और न ही स्पेनिश पढ़ने में हमारी दिलचस्पी है. लेकिन आपकी कहानियों की प्रतीक्षा रहेगी. हिन्दूस्तान से लिखने पढ़ने का नाता बना रहे, यही चाहती हूं.
October 22, 2008 at 3:04 AM
अच्छी बुनावट के साथ लिखी है आपने. पूरी कहानी में आक्रोश झलकता है और सच कहें तो इसे घृणा का नाम दिया जा सकता है. हर वाक्य़ में अपने पिता से नफरत. उन वाक्यों में भी जो संवाद नहीं हैं. हर वाक्य की उपस्थिति में घृणा सामने है. मेरी बधाई.
October 22, 2008 at 4:12 AM
बहुत सुंदर, वाकई कहानी बहुत कुछ सोचने पर मजबूर करती है.
अनिल कुमार पाण्डेय
October 22, 2008 at 4:17 AM
क्या इन सवालों को जवाब इतनी आसानी से दिया जा सकता है. जहां मनीषा ने शुरू किया कहानी तो दरअसल वहीं से शुरू होती है. उस बच्ची के सपने जो जवान हो गए, उस जवान लड़की की भावनाएं जो वक्त से पहले बूढ़ा गईं. उन बूढ़ी भावनाओं को ले कर जिंदा रहना...
प्यार की इस घृणित जद्दोजहद के लिए मनीषा बधाई की हकदार हैं
October 22, 2008 at 5:33 AM
anant ji,goli to maari jaani chahiye aise baap ko lekin sach to yeh hai ki bahut si bachiyaan isi tarah shikaar hoti hain aur unme se kuch hi aage badh jaati hain zindagi pe apna raasta banate hue.bahut si aurten padhi likhi hone ke bawjood patiyon se pit ti rahti hain aur soshad bardasht karti hain... apni aishwarya rai ji ko hi le lijiye. pahle to samaj ki soch badalni hogi.....
October 22, 2008 at 11:50 PM
माफ़ी! ऐसे आदमी की शक्ल देखने से भी मना करना चाहिए था नायिका को ..खैर सुंदर कहानी थी .. बस मुझे अंत नही पचा .
October 26, 2008 at 10:54 AM
एक अलग सी...मार्मिक कहानी के लिए मनीषा जी को बहुत-बहुत बधाई
October 26, 2008 at 11:54 AM
मुआफी चाहूंगा ज्यादा जानकार नही हूं फिर भी यह कह सकता हूं कि शब्दों की बुनावट बहुत देखी, काम ही यही है अपना, लेकिन भावनाओं को लेकर ऐसी बुनावट कम ही देखने में आती है।
कहानी सिर्फ़ कहानी नही हैं यह एक ऐसा बैकग्राऊंड लेकर चल रही है जिसे और भी विस्तारित किया जा सकता है।
शुभकामनाएं।
October 27, 2008 at 12:18 AM
mrinal ने बिल्कुल सही कहा है कि - स्पेनिश और अंग्रेजी पढ़ाने का काम सैकड़ों, हजारों लोग इस देश में कर सकते हैं, लेकिन ऐसी कहानियां लिखने का सामर्थ्य उन सबमें से दर्जन भर के पास भी नहीं होगा.
October 29, 2008 at 4:51 AM
गीताश्री जी
नमस्कार
मनीषा जी की कविताएं और कहानियां अपने ब्लॉग पर ज़रूर डालें। मुझ जैसे बहुत पाठक को उनकी रचनाओं का इंतज़ार रहेगा।
सादर सहित
चंदन प्रताप सिंह
October 29, 2008 at 9:13 AM
गीता जी,
नमस्कार
गजब की खोजी नजर है आपकी। बहुत अच्छी कहानी के साथ अच्छी कहानीकार को इस ब्लाग जगत से रूबरु किया है आपने।
कभी समय मिले तो लोकरंग की तरफ भी जरूर आइएगा।
धन्यवाद,
October 30, 2008 at 7:03 AM
ये अंत नहीं मनीषा जी, आक्रोश को आपने शब्दों की परतों में इस तरह दबे रहने को मजबूर किया है कि कुछ भी मुखर होकर सामने नहीं आता. न पिता का पाप, और न बेटी का बड़प्पन. पता नहीं वो बेटी कैसी थी, जो अपने साथ इतना सब होने के बाद भी पापी बाप से दोबारा नजर मिलाती है, इतना सब कुछ होने के बाद भी उसके दिल में प्यार बचा रहता है. इतना आदर्शवाद समझ से परे है, उस हालत में तो और भी, जब चोट हो रही हो ऐसे रिश्ते पर, जिसकी छांव में दुनिया की हर बेटी सुरक्षित महसूस करती है. पढ़कर मेरा मन एक अजीब सी घृणा से भर गया है.
December 12, 2008 at 10:16 PM
Good poems and story. Is Ravi Taneja your ralative? He is ex student of Mithibai college-Mumbai.
Dharmesh Bhatt
December 12, 2008 at 10:19 PM
Good poems and story. Is Ravi Taneja your ralative? He is ex student of Mithibai college-Mumbai.My email id is newsbhatt@yahoo.com
Dharmesh Bhatt
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